Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | जर्णा का अंग
पूर्व परिचय -
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | जर्णा का अंग के माध्यम से हम इस अद्भुत शब्द के गहरे अर्थ को समझते हैं, जो जीवन के मूल्यों और सत्य के प्रति हमें अवगत कराते हैं। कबीर ने अपनी अद्वितीय भाषा में जर्णा के अंग की अज्ञेयता और मिथ्यापन का सख्त खंडन किया है, जो साधकों को मोक्ष की ओर अग्रसर करने के लिए एक मार्गदर्शन के रूप में कार्य करता है।
जर्णा का शाब्दिक अभिप्राय है अनादि, अतिप्राचीन, अजीर्ण ( अ का लोप हो गया है) जो कभी वृद्ध नहीं होता । इसका लक्ष्यार्थ है अनिर्वचनीय तत्त्व | इस अंग में परम तत्त्व का अनेक रूपों में निर्वचन करने का प्रयत्न किया गया है । कबीर का कहना है कि जिसे भौतिक आँखों से देखा नहीं जा सकता उसे बड़ा या छोटा कैसे कहा जा सकता है?
अन्तर्दृष्टि से यदि कोई साधक उसे देखता है या उसकी अनुभूति करता है तो उसे वह यथारूप व्यक्त नहीं कर सकता। अतः उस अद्भुत को यदि रहस्यपूर्ण ही रहने दिया जाय तो अच्छा है।
वेद-कुरान भी तो वहाँ नहीं पहुँच पाते, किन्तु उसे अगम-अगोचर समझकर भक्त को निराश नहीं होना चाहिए। उसे अपने अनुमान से आगे बढ़ना चाहिए, धीरे-धीरे वह प्रमाण तक पहुँच ही जायेगा। वहाँ पहुँचने पर भक्त जब आनन्द-सागर में केलि करने लगेगा तभी वह कुछ कह सकेगा। बिना परमपद पर पहुँचे उसके विषय में कुछ कहना संशय पैदा करना है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | जर्णा का अंग | दोहा १
भारी कहौं त बहु डरौं, हलका कहूँ तो झूठ ।
मैं का जाँणौं राम कूँ, नैनूँ कबहुँ न दीठ ।। १ ।।
शब्दार्थ -
नैनू = नेत्रों से, दीठ = देखा ।
व्याख्या –
कबीरदास (Kabirdas) कहते हैं कि यदि मैं राम को भारी अर्थात् बहुत बड़ा कहता हूँ तो डर लगता है और यदि हल्का कहता हूँ तो असत्य है। मैं राम के आकार के विषय में क्या जान सकता हूँ? क्योंकि इन नेत्रों से उसे कभी देखा ही नहीं है । ब्रह्म के विषय में औपनिषदिक कथन है 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' – ब्रह्म अणु अणुतर और महान् से भी महानतम है । उसको महान् और लघु कहना दोनों ही मिथ्या है। बड़ा और छोटा होना अन्य से भी वस्तु सापेक्ष है ।
ईश्वर के अलावा कोई दूसरा तत्त्व है ही नहीं तो वह किससे बड़ा-छोटा होगा? उसे ज्ञान-दृष्टि से ही प्रत्यक्ष किया जा सकता है, वह केवल अनुभूति का विषय है। ऐसी स्थिति में किसी आकार की परिकल्पना ही संभव नहीं है। भारी और हल्का में यह भी व्यंजना है कि भारी-भरकम ईश्वरीय आकार की कल्पना भक्त के लिए डरावनी होगी । हल्का तत्त्वहीनता का बोधक शब्द है
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | जर्णा का अंग | दोहा २
दीठा है तो कस कहूँ, कह्या न को पतियाइ ।
हरि जैसा है तैसा रहौ, तू हरषि हरषि गुण गाइ || २ ||
शब्दार्थ –
दीठा = देखा है, कस = कैसे, पतियाइ = विश्वास करना, हरषि = हर्षित होकर ।
व्याख्या -
कबीरदास (Kabirdas) कहते हैं कि यदि मैंने उसे ज्ञान दृष्टि से देखा है तो, उस वर्णनातीत का वर्णन कैसे करूँ? यदि वर्णन का प्रयत्न करूँगा तो, उसमें कुछ न कुछ कमी रह जायेगी । अर्थात् मैं वाणी से उस अनुभूति को एकदम उसी रूप में संप्रेष्य नहीं कर सकूँगा। ऐसी स्थिति में कोई सुनने वाला, उस कथन पर विश्वास नहीं करेगा। मेरी सलाह तो यही है कि, भगवान् जैसा है वैसे ही रहने दो । तुम हर्षित होकर उसका गुणगान करो ।
भगवान् के स्वरूप, आकार आदि के विषय में तर्क-वितर्क एवं ऊहापोह से कोई विशेष लाभ नहीं है, इसे तो विशुद्ध दार्शनिकों के लिए छोड़ देना चाहिए । भक्त को तो हर्षित होकर उसका गुण कथन करना चाहिए। विशेषोक्ति अलंकार की योजना की गयी है ।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | जर्णा का अंग | दोहा ३
ऐसा अद्भुत जिनि कथै, अद्भुत राखि लुकाइ ।
बेद कुरानौं गमि नहीं, कह्याँ न को पतियाइ ।।३।।
शब्दार्थ -
जिनि = नहीं, मत, कथै = कथन करना, लुकाइ छिपाकर, गमि = पहुँच, पतियाइ = विश्वास करना । =
व्याख्या –
कबीरदास (Kabirdas) कहते हैं कि उस अद्भुत परमतत्त्व (ईश्वर) के स्वरूप के विषय में कथन मत करो। उसे अद्भुत तथा रहस्यपूर्ण ही रहने दो । उसे हृदय की अनुभूति के स्तर पर ही गोपनीय रखो। वेद और कुरान की पहुँच वहाँ तक नहीं है। अकथनीय के विषय में किया गया कथन, विश्वसनीय नहीं हो सकता । इसीलिए यदि तुम ईश्वर का बयान करोगे तो लोग तुम्हारी बात पर भरोसा नहीं करेंगे ।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | जर्णा का अंग | दोहा ४
करता की गति अगम है, तूं चलि अपणै ' उरमान ।
धीरै-धीरै दे, पहुँचैगे पाव परवान ।।४।।
शब्दार्थ –
करता = कर्त्ता, ईश्वर, उनमान =अनुमान, परवान प्रमाण ।
व्याख्या
कबीर कहते हैं कि यद्यपि भगवान् की गति अगम्य है अर्थात् उसकी माया को पहचानना मनुष्य के बस का नहीं है। फिर भी तुम अपने आन्तरिक अनुमान के आधार पर धीरे-धीरे साधना-पथ पर अग्रसर होते जाओ (या तिवारी कथन से उसके विषय में अनुमान नहीं किया जा सकता । आत्मदर्शन से ही उसे समझा जा सकता है) एक दिन निश्चित रुप से किसी प्रमाण या निश्चय पर पहुँच जाओगे ।
कबीर (Kabirdas) के कथन का मूल अभिप्राय यह है कि किसी दूसरे व्यक्ति के कथन से ईश्वर के स्वरूप का पूर्ण ज्ञान कर लेने के बाद साधना में प्रवृत्त होना उचित नहीं है। अपने आन्तरिक के अनुमान श्रेयस्कर है। आधार पर स्वानुभूति के जरिये प्रामाणिक तथा विश्वसनीय स्थिति तक पहुँचना विरोधाभास अलंकार की योजना दर्शनीय है ।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | जर्णा का अंग | दोहा ५
पहुँचेंगे तब कहेंगे, अमड़ेंगे उस ठाँइ ।
अजहुँ बेरा समंद मैं, बोलि बिगूचैं कां ।।५ ।।
शब्दार्थ –
अमड़ेंगे = आनन्द केलि करना, बेरा = बेड़ा, मैं = में, बौलि = बोलकर, बिगूचै = दोषी, अशुद्धि ।
व्याख्या –
कबीरदास (Kabirdas) कहते हैं कि साधना की चरम स्थिति की अवस्था में पहुँचने के बाद ही कुछ कहेंगे । उस स्थिति में तो मैं आनन्द-सागर में केलि करूँगा । ( उस परमतत्त्व में लीन होकर परमानन्दमय हो जाऊँगा) अभी तो बेड़ा भवसागर में है। अभी से बढ़-चढ़कर बोलकर अहंकार का दोष क्यों लूँ? या अपनी बोल को दूषित क्यों करूँ । बिना परमपद पर पहुँचे उसके विषय में कथन करने वाला संशय तथा उलझन ही पैदा करता है। इसमें रूपकातिशयोक्ति अलंकार का विधान है।
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