Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | चितावणी कौ अंग | दोहा १- १० |

Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | चितावणी कौ अंग | दोहा १- १० |

"Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | चितावणी कौ अंग | दोहा १- १० | में जीवन की सच्चाइयों पर आधारित कबीर के दोहे और उनका सरल हिंदी भावार्थ पढ़ें।"

    पूर्व परिचय -

    कबीर ने इस अंग में जीवन की नश्वरता की चेतावनी दी है। सांसारिक वैभव तथा भोग विलास के समस्त उपकरण अल्पकालिक हैं। राजा रंक सभी की निर्मित योजनाएँ क्षण भर में ध्वस्त हो जाती हैं, एक दिन सब को संसार त्यागकर जाना होगा, इसलिए मुक्ति हेतु राम के नाम का स्मरण समय से कर लेना चाहिए। मनुष्य अपने यौवन की मस्ती में भूलकर तथा अज्ञान के कारण संसार को ही सब कुछ समझ बैठता है जबकि यह संसार सेमर के फूल की तरह आकर्षक तो है किन्तु अन्ततः निष्फल ही है।

    जीव अज्ञान की रात्रि में सुख-दुःख के सपने देखता है। इसलिए उसे जीव और ब्रह्म में भेद प्रतीत होता है। जागृत होने पर यह भेद मिट जाता है। यह मनुष्य जीवन दुर्लभ है। यह एक अवसर है जिसमें हरि की भक्ति से मुक्ति हो सकती है। शरीर तो कच्चे घड़े की तरह है जिसमें एक धक्का लगते ही टूट जाता है। जीव अपने ही कर्म कुल्हाड़ी से अपने शरीर, मन को काटता रहता है। सारा संसार जिस माया की रस्सी में बँधा है कबीर उससे नहीं बँधना चाहते।

    सन्त लोग विषय वासना के प्याले को छोड़कर भक्ति रस (राम रस) का प्याला पीते हैं। गरीबी में रहकर भी राम की ओट ग्रहण करनी चाहिए। जीवों के लिए यह जगत मात्र एक बाजार है, यहाँ लोग वाणिज्य के लिए आते हैं, कर्म का सौदा बेंचकर अपने वास्तविक घाम को प्रस्थान कर जाते है। यहाँ मैं (अहंकार) ही बड़ी बला है। देह की जर्जर नौका लेकर वही व्यक्ति भवसागर के  पार जा सकता है जिसके सिर पर सांसारिकता का भार नहीं है।


    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | चितावणी कौ अंग | दोहा १


    कबीर नौबति आपणीं, ए पुर पाटण ए गली, दिन दस लेहु बजाइ। 

    ए पूर पाटण ए गली , बहुरि न देखहु आइ ।।१।।


    शब्दार्थ-
    आपणी = अपणी, पाटण शहर, बहुरि दुबारा ।

    व्याख्या-
    हे जीव, भौतिक सुखों की अपनी इस शान-शौकत तथा ऐश्वर्य को कुछ दिनों और भोग लो। इसके पश्चात् तुम्हें यह नगर, यह शहर तथा ये गलियाँ देखने को भी नहीं मिलेंगी। अर्थात यह मानव योनि जो एक बार प्राप्त हो गयी है. उसमें चाहे जितना सुख एवं ऐश्वर्य पूर्ण जीवन व्यतीत कर लो, दुबारा फिर कभी यह मानव योनि मिलने वाली नहीं है।

    इस साखी में कबीर ने जीवन की क्षण-भंगुरता का वर्णन किया है।

    नौबति बजना-राजाओं एवं बादशाहों के द्वार पर बजने वाला मंगल सूचक तथा ऐश्वर्य सूचक वाद्य, इसका प्रयोग मुहावरे के रूप में है।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | चितावणी कौ अंग | दोहा २


    जिनके नौबति बाजती, मैंगल बँधते बारि।

    एकै हरि के नाँव बिन, गए जनम सब हारि ।।२।।


    शब्दार्थ-
    मैंगल = मदमस्त हाथी, नाँव राम-नाम, हारि = व्यर्थ ।

    व्याख्या-
    जिनके द्वार पर हमेशा वैभव सूचक वाद्य बजते थे और द्वार पर मस्त हाथी बँधे रहते थे उनका सम्पूर्ण जीवन भगवान् के नाम-स्मरण के बिना नष्ट हो गया।

    कबीर के अनुसार सांसारिक वैभव निरर्थक है, भक्ति करने में ही जीवन की सार्थकता है। राम नाम-स्मरण की महत्ता स्वीकार की गयी है।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | चितावणी कौ अंग | दोहा ३



    ढोल दमामा दुड़बड़ी, सहनाई संगि भेरि।

    औसर चल्या बजाइ करि, है कोइ राखै' फेरि ।।३।।


    पाठान्तर
    तिवारी - १. लावै

    शब्दार्थ 
    औसर = समय बीतने पर, दमामा बड़ा नगाड़ा।

    व्याख्या-
    इस मानव जीवन में सुख के सारे साधन क्षण-भंगुर हैं। यह (जीव) अपने समय पर ढोल, नगाड़ा, डुगडुगी, शहनाई तथा उसके साथ भेरी आदि बाजे बजाकर अर्थात् सांसारिक वैभवों को भोगता हुआ तथा उसका ढिंढोरा पीटता हुआ चला जाता है। परन्तु क्या ऐसा कोई है जो समय बीतने पर जीवन के इन सुखों की बाद में रक्षा कर पाता है? अथवा उन्हें लौटाकर रख पाता है?

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | चितावणी कौ अंग | दोहा ४



    इस साखी में जीवन के सुखों की क्षण-भंगुरता तथा समय की महत्ता का वर्णन है।

    सातौ सबद जु बाजते, ते मंदिर खाली पड़े, 

    घरि-घरि होते राग। बैसण लागे काग ।।४।।


    व्याख्या-
    भौतिक वैभव से युक्त जिन महलों में कभी सातों प्रकार के स्वर ध्वनित होते थे और प्रत्येक क्षण राग-रागिनियाँ बजती थीं, वे मंदिर (महल) खाली पड़े हैं, उन पर अब केवल कौओं का ही निवास होता है।

    कबीर ने संसार की प्रत्येक वस्तु की नश्वरता का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है। राजकीय वैभव से युक्त महलों का यथार्थ चित्रण है।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | चितावणी कौ अंग | दोहा ५



    कबीर थोड़ा जीवणां, माड़े बहुत भैड़ाण। 

    सबही ऊभा मेल्हि गया, राव रंक सुलितान ।।५।।


    शब्दार्थ-
    जीवणां = जीवन के लिए, माड़े इकट्ठा करना। 

    व्याख्या-
    प्राणी अपने थोड़े से जीवन के लिए बहुत अधिक संसाधन इकट्ठे कर लेता है, परन्तु काल समय पर खड़े-खड़े राजा, भिखारी और बादशाह सभी को निगल लेता है। कबीर ने मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति पर प्रकाश डाला है, किस प्रकार वह छोटे से जीवन में भौतिक सुखों के पीछे पड़ जाता है।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | चितावणी कौ अंग | दोहा ६


    इक दिन ऐसा होइगा, सब यूँ पड़े बिछोह।

    राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ ।। ६ ।।


    जीवन में एक दिन ऐसा भी आता है, जब सब से वियोग हो जाता है, इस अनिवार्यता को जानकर भी राजा, राणा और छत्रपति सावधान क्यों नहीं होते? वे सांसारिक भोगों से विरक्त होकर परमात्मा का स्मरण क्यों नहीं करते?

    कबीर ने सामान्य प्राणी के साथ ही वैभव, पद एवं शक्ति से सम्पन्न लोगों के जीवन को भी समान दर्शाया है।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | चितावणी कौ अंग | दोहा ७



    कबीर पट्टण कारिवाँ, पंच चोर दस द्वार।

    जम राणा गढ़ भेलिसि, सुमिरि लै करतार।।७।।


    शब्दार्थ-
    पट्टण = शरीर, नगर, दस द्वार दस इन्द्रियाँ, भेलिसि नष्ट कर देना।

    व्याख्यार्थ 
    कबीर कहते हैं कि शरीर के इस नगर के कारवाँ पर आक्रमण करने के लिए इन्द्रियाँ ही दस दरवाजे हैं तथा काम, क्रोध, मद, लोभ तथा मोह रूपी पाँच इस शरीर के भीतर बसने वाले चोर हैं। इनके कारण ही शरीर की शक्ति नष्ट होती रहती है। ये दरवाजे भी सुरक्षित नहीं हैं। यमराज इस शरीर के दुर्ग को नष्ट कर देगा। अतः हे प्राणी इससे बचने के लिए परमात्मा का स्मरण कर ले।

    कबीर ने शरीर की नश्वरता का यथार्थ चित्रण किया है। साखी में सांगरूपक अलंकार को योजना है।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | चितावणी कौ अंग | दोहा ८


    कबीर कहा गरबियो', इस जोबन की आस ।

    टेसू फूले दिवस चारि, खंखर भये पलास । । ८ ।।


    पाठान्तर -
    तिवारी - १. कबीर गरब न कीजिए

    शब्दार्थ-
    गरबियो = गर्व करना, अहंकार, खंखर पत्ते बिहीन ढूँठ।

    व्याख्या-
    कवीर कहते हैं कि हे जीव! इस यौवन शक्ति पर क्यों अहंकार करते हो? यह तो उसी प्रकार नष्टप्राय है जैसे केशू का पुष्प जो चार दिनों तक फूलता है और अन्ततः पलाश के समान कुम्हलाकर दूँठ हो जाता है। उसी प्रकार इस यौवन की प्रफुल्लता भी थोड़े दिनों तक रहने वाली है।

    कबीर ने जीवन की क्षणभंगुरता का यथार्थ चित्रण किया है। निदर्शना अलंकार की योजना की गयी है।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | चितावणी कौ अंग | दोहा ९


    कबीर कहा गरबियो', देही देखि सुरंग।

    बीछड़ियाँ मिलिबौ नहीं, ज्यूँ काँचली भुवंग ।।९।।


    पाठान्तर -
    तिवारी १. कबीर गरबु न कीजिए

    शब्दार्थ-
    सुरंग = सुंदर, काँचली केंचुली, भुवंग सर्प।

    व्याख्या-
    हे जीव! इस सुंदर शरीर को देखकर क्या अहंकार करता है। एक बार इससे बिछुड़ जाने पर फिर इससे मिलन नहीं हो सकता। यह उसी प्रकार होता है जैसे भुजंग द्वारा छोड़ी हुई केंचुल से उसका पुनः मिलन नहीं हो पाता।

    इस साखी में शरीर की नश्वरता की व्यंजना की गयी है। ज्यूँ काँचली भुवंग में उपमा अलंकार का प्रयोग दर्शनीय है।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | चितावणी कौ अंग | दोहा १०


    कबीर कहा गरबियो', ऊँचे देखि अवास ।

    काल्हि परयुं भुइ लोटणा, ऊपरि जामैं घास ।।१०।।


    पाठान्तर -
    तिवारी - १. कबीर गरबु न कीजिए

    व्याख्या-
    हे प्राणी अपने इन ऊँचे भवनों को देखकर क्यों व्यर्थ में अभिमान करता है? कल-परसों (कुछ ही दिनों में) भूमि के ऊपर लेटना होगा और इन भवनावशेषों पर घास ही उगेगी।

    कबीर ने सांसारिक वैभव-विलास को अत्यन्त तुच्छ बताया है।

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