Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे (चाणक्य का अंग): संत कबीर के प्रेरक दोहों में चाणक्य की नीतियों का संगम। जीवन, नैतिकता और बुद्धिमत्ता पर गहरे विचार पढ़ें और प्रेरणा पाएँ।
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Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे चाणक्य का अंग |
पूर्व परिचय -
चांणक चाणक्य का अपभ्रंश है। चाणक्य की राजनीतिक चतुराई प्रसिद्ध है। उसी आधार पर चतुराई के अर्थ में यह शब्द प्रचलित हुआ है। संसार में जीव का जीव से लगाव रहता है। वेशभूषा मात्र से साधक लोग संत होने का कपट करते हैं। आडम्बरों में ही उलझ कर वे समय बिता देते हैं। उन्हें राम के नाम की पहचान नहीं होती। वेदपाठी पंडित एवं शाक्त आदि की पद्धति मुक्तिदायिनी नहीं। बहुत चतुराई करने वाला तोते की तरह पिंजड़े में ही बंद होकर रह जाता है। पंडित जो दूसरों को उपदेश देता है अन्ततः उसके मुँह पर मिट्टी ही पड़ती है। इस अंग में कबीर मनुष्य की मिथ्या चतुराई का ही पर्दाफाश करते हैं।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा १
जीव बिलंब्या जीवं सौं, अलष न लखिया जाइ। गोविन्द मिलै न झल बुझै, रही बुझाइ बुझाइ ।।१।।
व्याख्या-
इस संसार में जीव-जीव के आश्रित है। वह उस अलक्ष्य निराकार परमतत्त्व की ओर नहीं देखता। बिना गोविन्द के सांसारिक विषय-वासनाओं की ज्वाला नहीं बुझती, चाहे किसी भी प्रकार से उसे क्यों न बुझाया जाय। बुझाइ बुझाइ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा २
इही उदर कै कारणै, जग जाँच्यौ निस जाम । स्वामी-पणौ जो सिरि चढ्यो सर्यो न एको काम ।। २ ।।
व्याख्या-
अपनी उदरपूर्ति के लिए रात-दिन प्राणी इस संसार से याचना करता है किन्तु उसका स्वामित्वपन (अपने बड़प्पन का भाव) उसके सिर पर रहता है जिसके परिणामस्वरूप उसका एक भी कार्य नहीं सिद्ध होता।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा ३
स्वामी हूँणाँ सोहरा, दोद्धा हूँणां दास। गाडर आँणी ऊन कूँ बाँधी चरै कपास ।।३।।
व्याख्या-
स्वामी बन जाना सरल है किन्तु परमात्मा का दास (भक्त) बनना अत्यन्त कठिन कार्य है अर्थात् भक्ति निबाहना दुष्कर है। जैसे भेड़ ऊन के लिए लायी जाती है किन्तु बँधी हुई वह कपास चरने में तत्पर हो जाती है अर्थात् प्राणी की जो शक्ति परमात्मा की भक्ति में लगनी चाहिए वह अपने अहंकार की रक्षा में लग जाती है।
गाडर (भेड़) से ऊन तो मिला नहीं कपास की भी हानि हुई। साधु संत होकर लोग संसार सुख भी छोड़ते हैं परमार्थ भी नहीं पाते, क्योंकि वे पूरी तरह संन्यास में लीन नहीं होते।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा ४
स्वामी हूवा सेंत का, पैकाकार पचास। राम नांम कांठै रह्या, करै सिषाँ की आस ।।४।।
व्याख्या-
स्वामी बन जाना सेंत का (आसान) काम है, स्वामी के अनेक पैकाकार (सेवक) 'भी बन जाते हैं, ऐसे साधक व्यक्ति के लिए राम-नाम एक किनारे रखा रह जाता है। वह अपने शिष्यों से ही आशा करने लगता है अर्थात् शिष्य ही उसकी सेवा भक्ति करें।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा ५
कबीर तस्टा टोकणीं, लीए फिरै सुभाइ। राम नाँम चीन्है नहीं, पीतलि ही कै चाइ ।।५।।
शब्दार्थ
तस्टा (फा०) = तसला।
व्याख्या-
कबीर कहते हैं कि मिथ्या साधक स्वभाव वश ही तसला और टोकणी (अलपात्र) लिए फिरते रहते हैं। राम-नाम की उन्हें पहचान ही नहीं है केवल पीतल की उस धातु के प्रति ही उनका प्रेम होता है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा ६
कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि घरी खटाइ। राज दुबारां यौं फिरे, ज्यूँ हरिहाई गाइ ।। ६ ।।
व्याख्या-
कलिकाल के महात्मा (साधु) अत्यन्त लोभी होते हैं। ये लोग पीतल में रखी हुई खटाई की तरह विकृत भी होते हैं। ये स्वामी राज-दरबारों में सम्मान पाने के लिए ऐसे फिरते हैं जैसे हरहा गाय स्वाद के वशीभूत होकर बारबार रोकने पर भी फसलों में मुँह मारा करती है। उपमा अलंकार।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा ७
कलि का स्वामीं लोभिया, मनसा घरी बधाई। दैहि पईसा ब्याज कौं, लेखाँ करतां जाइ ।।७।।
व्याख्या-
कलिकाल के स्वामी (संन्यासी) लोभवश अपने मन की इच्छाओं को निरंतर बढ़ाकर रखते हैं अतः ब्याज प्राप्त करने के लिए पैसा उधार देते हैं और उसी का लेखा-जोखा करने में जीवन नष्ट कर देते हैं। स्वामी शब्द मठाधीशों तथा महन्तों के लिए प्रयुक्त किया गया है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा ८
कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिले न कोइ। लालच लोभी मसकरा, तिनकूं आदर होड़ ।।८।।
व्याख्या-
इस कलिकाल में बहुत ही बुरा हुआ, कोई श्रेष्ठ (सच्चा) मुनि मिलता ही नहीं। क्योंकि इस काल में जो लोभी है, लालची है। है तथा हँसी मसखरी करने वाले हैं उन्हीं को सम्मान मिलता है। तुलसी भी कहते हैं-जो कह झूठ मसखरी जाना। कलयुग सोइ गुनवन्त बखाना ।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा ९
चायूं बेद पढ़ाइ करि, हरि सूँ न लाया हेत। बालि कबीरा ले गया, पंडित ढूँढे खेत ।।९।।
व्याख्या-
चारों वेदों को पढ़ाकर भी पंडित को हरि से प्रेम नहीं हुआ। अन्न युक्त बाल तो कबीर ले गया तथा पंडित सारहीन खेतों को ही ढूंढ़ता रहा। परमात्मा के प्रति प्रेम की महत्ता वर्णित है। भक्ति में तत्त्व है, शास्त्र में सारहीनता। रूपकातिशयोक्ति अलंकार की योजना है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा १०
ब्राह्मण गुरु जगत का, साधू का गुरु नाहिं। उरझि पुरझि करि मरि रह्या, चारिऊं वेदाँ माँहि ।।१०।।
व्याख्या-
ब्राह्मण या पंडित सारे संसार का गुरु होता है किन्तु वह साधु (संत) पुरुषों का गुरु नहीं हो सकता। ब्राह्मण चारों वेदों में उलझ उलझ कर जीवन यूँ ही नष्ट कर देता है। जबकि साधु (संत) आत्मसाक्षात्कार को महत्व देता है। इसलिए वह श्रेष्ठ है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा ११
कलि का बाम्हन मसखरा, ताहि न दीजै दान। सौ कुटुंब नरकै चला, साथि लिए जजमान ।।११।।
व्याख्या-
कलियुग का ब्राह्मण दिल्लगीबाज है (हंसी मजाक करने वाला) उसे दान मत दो। वह अपने यजमान को साथ लेकर सैकड़ों कुटुम्बियों के साथ नरक जाता है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा १२
साषित सण का जेवड़ा, भींगाँ सू कठठाइ। दोड़ अषिर गुरु बाहिरा, बांध्या जमपुरि जाइ ।।१२।।
व्याख्या-
शाक्त धर्म के अनुयायी सन की रस्सी जैसे हैं जो भीगने से और भी कठोर हो जाते हैं अर्थात् भक्ति-रस से भीगने पर भी वह अपने अहं में और भी कठोर हो जाते हैं। राम नाम रूपी दो अक्षर तथा गुरु के अभाव में वे काल-पाश में बँधे हुए यमलोक जाते हैं।
मध्यकाल में शक्ति की पूजा करने वालों को ही साषत (शाक्त) कहा गया है। यह वैष्णव धर्म से विमुख रहने वाले थे। कबीर ने इन पर व्यंग्य किया है। उपमा एवं रूपक अलंकारों की योजना है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा १३
पाड़ोसी सू रुषणां, तिल तिल सुख की हांणि। पंडित भए सरावगी, पाँणी पीवैं छाँणि ।। १३ ।।
व्याख्या-
अपने पड़ोसी के प्रति रोष (द्वष) करने से थोड़ा-थोड़ा करके सुख की हानि ही होती है। जैसे पंडित भी श्रावकों (जैन साधुओं) के पड़ोस में (संगति) पड़कर पानी को छानकर पीने लगता है। अर्थात् संगति का प्रभाव उस पर पड़ने लगता है, वह भी ढोंगी हो जाता है।
पड़ोसी के साथ सद्व्यवहार न करके लोग उनके आडम्बर, प्रथा, आचरण की नकल कर लेते हैं।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा १४
पंडित सेती कहि रह्या, भीतरि भेद्या नाहिं । औरूँ कौं परमोधतां, गया मुहरक्यां माँहि ।।१४ ।।
व्याख्या-
यह कबीर पंडित से कहता ही रह गया किन्तु उसका उपदेश उसके हृदय को नहीं भेद सका। दूसरों को प्रबोधित करते-करते वह स्वयं उस अगुवाई (नेतागिरी) में बेकार हो गया। पंडित अपनी बात तो दूसरों को समझाना चाहते हैं किन्तु दूसरे की सुनना नहीं चाहते। इसी से उनका विनाश होता है। उनमें जड़ता घर कर जाती है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा १५
चतुराई सूवैं पढ़ी, सोई पंजर मांहि। फिरि प्रमोधै आंन कौं, आपण समझे नाहिं ।।१५।।
व्याख्या-
तोते ने बड़ी चतुराई सीखी तो वह पिंजरे में आबद्ध हो गया। आबद्ध हुआ वह दूसरों को ज्ञान देता है किन्तु वह स्वतः इस ज्ञान को नहीं समझता। इस साखी में शाब्दिक ज्ञान की निस्सारता का वर्णन है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा १६
रासि पराई राषतां, खाया घर का खेत । औरों को परमोधतां, मुख में पड़िया रेत ।। १६ ।।
व्याख्या-
जैसे दूसरों की अन्न राशि की रक्षा करते हुए किसान का खेत पशुओं द्वारा खा लिया गया। वैसे दूसरों को प्रबोधित करने वाले (ज्ञान देने वाला) पंडित के मुख पर खेह ही पडती है अर्थात अपमानित होकर नष्ट हो जाता है। जो अपना कल्याण न सोचकर उपदेश देता है, उसकी परिणति बुरी होती है। अन्योक्ति अलंकार की योजना है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा १७
तारा मंडल बैंसि करि, चंद बडाई खाइ। उदै भया जब सूर का, स्यूँ ताराँ छिपि जाइ ।।१७।।
व्याख्या-
तारा मंडल में बैठकर चंद्रमा बडप्पन को प्राप्त करता है परन्तु जब सूर्य का उदय होता है तो वह भी तारों के समान छिप जाता है।
अज्ञानियों के मध्य सामान्य ज्ञान रखने वालों की प्रतिष्ठा रहती है किन्तु अनुभूति सम्पन्न जानी के समक्ष वह नहीं ठहर पाता। चन्द्रमा पंडित का, तारा मंडल शिष्यों का तथा सूर्य ज्ञान सम्पन्न भक्त का प्रतीक है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा १८
देषण कौं सब कोउ भले, जिसे सीत के कोट। रवि के उदै न दीसहीं, बँधै न जल की पोट ।।१८।।
व्याख्या-
तुषार या कुहरे के दुर्ग के समान देखने में सब साधु-संत भले ही सदृश प्रतीत होते हैं किन्तु ज्ञान रूपी सूर्य के प्रकट होने पर वे अदृश्य हो जाते हैं और उस जल की पोटली रहीं बाँधी जा सकती।
इस साखी में सूर्य ज्ञानी भक्त है तथा तुषार (कुहरा) सामान्य ज्ञान का अहंकार करने बाला संत है। ज्ञानोदय के पश्चात् आडम्बर युक्त संन्यासी महत्त्वहीन हो जाते हैं। सीत के कोट में उपमा अलंकार की योजना की गयी है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा १९
तीरथ करि करि जग मुवा, इँधै पाँणी न्हाइ। रांमहि राम जपंतडाँ, काल घसीट्याँ जाइ ।।१९।।
व्याख्या-
यह सारा जगत (सांसारिक प्राणी) तीर्थों में भ्रमण करते-करते तथा उसके जल में स्नान करते-करते मर गया। जबकि केवल राम नाम जप करके ही इस काल को घसीटा (वश में) जा सकता है। काल पर विजय पायी जा सकती है।
इस साखी में बाह्याडम्बरों का खंडन है। राम-नाम की महत्ता वर्णित है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा २०
कासी काँठें घर करै, पीवै निरमल नीर। मुकति नहीं हरि नाँव बिन, यूँ कहै दास कबीर ।।२०।।
व्याख्या-
भक्त कबीर कहता है कि जो काशी के निकट (क्षेत्र) घर बनाकर निवास करता है तथा वहाँ का (गंगा) स्वच्छ जल पीता है वह भी परमात्मा के स्मरण के बिना मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता ।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा २१
कबीर इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार। पूँछ जो पकड़े भेड़ की, उतऱ्या चाहै पार ।।२१।।
व्याख्या-
कबीर कहते हैं कि जो लोग भेड़ की पूँछ पकड़ कर इस भवसागर के पार उतरना चाहते हैं ऐसे लोगों को मैं कितनी बार समझाऊँ क्योंकि बार-बार बताने पर भी वे नहीं समझते।
इस साखी में भेड़ की पूँछ पकड़ना गतानुगतिक होना है तथा जिसके पार जाना है वह भवसागर है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा २२
मैं रोऊँ संसार कौ, मो कौ रोवै न कोइ। मोकौं रोवै सो जना, जो सबद विवेकी होइ ।।२२।।
व्याख्या-
कबीर कहते हैं कि मैं सारे संसार की पीडा से रोता हैं। उनके उद्धार की चिन्ता से व्यधित हैं परन्तु वे मेरे लिए नहीं रोते। मेरे लिए वही रोते हैं जो शब्द (राम) के विवेकी हैं। जो शब्द ब्रह्म की अनुभूति रखते हैं वे ही मेरी साधना की कठिनाई को समझते हैं।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा २३
कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं धंम। कोटि करम सिरि ले चल्या, चेति न देखै भ्रम ।। २३ ।।
व्याख्या
कबीर कहते हैं कि प्राणी मन ही मन प्रसन्न होकर इसलिए फिरता है कि वह कर्म विहित कर्म कर रहा है परन्तु करोड़ों कमों का भार वह सिर पर रखकर चला जा रहा है। सचेत होकर वह इस भ्रम को नहीं देखता।
प्राणी के अन्दर व्याप्त अहंकार की भावना ही उसका बंधन है। इसी की व्यंजना है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा २४
मोर तोर की जेवड़ी, बलि' बंध्या संसार। काँसि कहूँबा सुत कलित, दाझण बारंबार ।।२४।।
पाठान्तर-
जय० १. गलि
शब्दार्थ
काँसि आकांक्षा।
व्याख्या-
यह संसार मेरी-तेरी (माया-मोह) की रस्सी से ही बल पूर्वक (या गले से) बँधा है। तू जिस कुटुंब, सुत, स्त्री आदि की आकांक्षा रखता है उनके द्वारा ही तुझे बार-बार दुःख उठाना पड़ता है, वे ही तुझे दग्ध करते हैं।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | चाणक्य का अंग | दोहा २५
कबीर कोठी काठ की, दह दिस लागी आगि। पंडित पंडित जलि गए, मूरख ऊबरे भागि ।।२५।।
व्याख्या-
यह संसार काठ की कोठरी है। इसमें दसों दिशाओं से विषय-वासना को आग लगी है। पंडित लोग इसमें आसक्त होकर जल मरते हैं किन्तु जिन्हें वे तथाकथित मूर्ख समझते हैं ऐसे (संत) लोग भागकर (संसार) का त्याग करके, उससे विरक्त होकर बच जाते हैं।
कोठरी साम्प्रदायिक और धार्मिक विचारों की भी हो सकती है जिसमें पड़कर पंडित लोग जलते हैं किन्तु मूर्ख लोग (जो पंडितों की दृष्टि में मूर्ख हैं) उसमें आसक्त न होकर बच जाते हैं।
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