Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सुमिरण का अंग | दोहा 1-5 |

Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सुमिरण का अंग | दोहा 1-5 |

    "Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सुमिरण का अंग | दोहा 1-5 |" - इस पोस्ट में हम आपको प्रस्तुत करेंगे कबीर दास के अद्वितीय दोहों का संग्रह "सुमिरण का अंग"। इस पहले अंश में, हम पाँच अद्वितीय दोहों के माध्यम से उनकी अद्भुत शिक्षाओं को साझा करेंगे, जो सुमिरण और भक्ति के माध्यम से आत्मा के मार्ग में मार्गदर्शन करते हैं। कबीर के दोहों की गहराईयों में छिपी सत्यता और जीवन के अद्वितीय पहलुओं को छूने का अनुभव करें। यह पोस्ट आपको एक आध्यात्मिक यात्रा पर ले जाएगी, जो आत्मा के साथ साक्षात्कार करने का अद्वितीय और महत्वपूर्ण तरीका है।

Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सुमिरण का अंग | दोहा १  |

 कबीर कहता जात हूँ, सुणता है सब कोइ । 

राम कहें भला होइगा, नहिं तर' भला न होइ ।। १ ।। 

व्याख्या - 

    कबीर सब लोगों को सुनाते हुए उद्घोषणा कर रहे हैं कि 'राम' नाम के कथन से ही कल्याण होगा अन्य किसी भी साधना पद्धति से भला होने वाला नहीं है । कबीर योग साधना, ज्ञान साधना, कर्म साधना तथा अन्य अनेक साधना पद्धतियों में भक्ति को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। उन्होंने अनेक साधना पद्धतियों का प्रयोग करने के बाद सबसे सरल साधना विधि नाम स्मरण को सर्वसुलभ समझा । इसीलिए जन-साधारण के लिए इस पद्धति को दृढ़ता पूर्वक अनुमोदित किया । 


Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सुमिरण का अंग | दोहा २  |

कबीर कहैं मैं कथि गया, कथि गया ब्रह्म महेस । 

राम नाँव ततसार है, सब काहू उपदेस || २ || 

शब्दार्थ - 

नाँव = नाम, ततसार= तत्त्व सार । 

व्याख्या - 

    कबीर कहते हैं कि मैंने जो कथन किया है उसी तरह का कथन ब्रह्मा और महेश (शिव) भी कर चुके हैं। मेरा कथन उसी के समरूप है। सभी का यही उपदेश है कि राम नाम ही सार तत्त्व है। भारतीय धर्म साधना में शब्द ब्रह्म की महिमा विशेष रूप से मान्य और प्रचारित रही है। उपनिषदों में ओऽम् का महत्त्व अनेक दृष्टियों से प्रतिपादित किया गया है। कबीर ओऽम् के स्थान पर 'राम' को स्थापित करते हैं। 'सब काहू' में ब्रह्मा महेश से इतर ऋषियों तपस्वियों तथा ज्ञानियों का संकेत है। 


Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सुमिरण का अंग | दोहा ३  |

तत तिलक तिहूँ लोक मैं, राम नाँव निज सार । 

जन कबीर मस्तक दिया, सोभा अधिक अपार ।। ३ ।। 

शब्दार्थ - 

तत = तत्त्व, तिहूँ = तीनों, नाँव = नाम, निज सार = आत्मसार, अपार = असीम | 

व्याख्या - 

    राम का नाम आत्मा का सार तत्त्व है । यह तीनों लोकों का मूर्धन्य तत्त्व रूप तिलक है। भक्त कबीर ने इसी तिलक से अपने मस्तक को अलंकृत किया है जिससे असीम छवि विराज रही है। 'तिलक' भक्त की पहचान होती है। कबीर छापा तिलक के विरुद्ध हैं। उनका विचार है कि भक्त की सही पहचान और शोभा वृद्धि राम-नाम के तत्त्व रूपी तिलक को मस्तक में लगाने से होती है। 


Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सुमिरण का अंग | दोहा ४  |

भगति भजन हरि नाँव है, दूजा दुक्ख अपार । 

मनसा, बाचा क्रमनाँ, कबीर सुमिरण सार ।।४।। 

शब्दार्थ-

दूजा = दूसरा, दुक्ख द = दुख,  अपार = असीम, मनसा = मन से, वाचा=वाणी से, क्रमनाँ = कर्म से, सार= मूल तत्त्व | 

व्याख्या -

    भगवान् का नाम-स्मरण ही वास्तव में भक्ति और भजन है। भजन के अलावा अन्य साधना असीमित दुख के कारण हैं। मन, वाणी और कर्म तीनों से स्मरण करना चाहिए। कबीरदास कहते हैं कि 'सुमिरन' (नाम-स्मरण) ही सभी धर्मों का सारतत्त्व है। इस साखी में नाम की महिमा का प्रतिपादन है। इस साधना में किसी भी आडम्बर के लिए कोई स्थान नहीं रहता । 


Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सुमिरण का अंग | दोहा ५  |

कबीर सुमिरण सार है, और सकल जंजाल । 

आदि अंति सब सोधिया, दूजा देखौं काल || ५ ॥ 

शब्दार्थ - 

सुमिरण = स्मरण, सकल सभी आदि, = अन्त आरम्भ और अन्तिम, सोधिया = अन्वेषण किया । 

व्याख्या-

    कबीरदास कहते हैं कि नाम-स्मरण ही सभी साधनों में श्रेष्ठ और भक्ति का मूल भाव है। अन्य सभी उपाय हठयोग, तीर्थाटन, मन्त्रोच्चारण, पूजा, नमाज, झंझट हैं। सभी साधना-रूपों को अच्छी तरह समझ कर, शोध कर तथा उनकी आरम्भिक स्थिति तथा परिणामों को समझ कर इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि अन्य सभी काल की तरह भयावह, तथा नाशक हैं । प्रस्तुत साखी में अनुप्रास की शोभा दर्शनीय है। बहुत सरल भाषा में कबीर ने 'सुमिरण' की महिमा को प्रतिपादित किया है ।

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