Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सूक्ष्म मार्ग का अंग | सूक्ष्म जनम का अंग

Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सूक्ष्म मार्ग का अंग | 


"कबीर के दोहे (Kabir Ke Dohe) और उनके सूक्ष्म मार्ग के ज्ञान को समझें! जीवन के गूढ़ सवालों का सरल समाधान, आध्यात्मिक सच्चाई, और मानवीय संबंधों की गहरी समझ के लिए पढ़ें यह लेख। कबीर के अनमोल विचारों से अपनी आत्मिक यात्रा को नई दिशा दें।"

    पूर्व परिचय-

    सूषिम का तात्पर्य है सूक्ष्म। अर्थात् परम पद पर पहुँचने का मार्ग अत्यन्त सूक्ष्म है। इस संसार में आकर जीव अपने असली देश को भूल जाता है। यहाँ से सभी उसी देश में जाते हैं किन्तु कोई उसका संदेश बताने नहीं आता। लोग चलने की बात तो करते हैं परन्तु उस स्वामी के विषय में नहीं जानते जहाँ उनको जाना है। प्रभु प्राप्ति का मार्ग कठिन है। उस मार्ग से चींटी एवं हवा भी नहीं जा सकती। सत्गुरु की साक्षी से ही वहाँ पहुँचना संभव है। कबीर अपने को भाग्यशाली मानते हैं क्योंकि उस परमपद पर प्रतिष्ठित हो सके हैं।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सूक्ष्म मार्ग का अंग | दोहा 1


    कौण देस कहाँ आइया, कहु क्यूं जांण्यां जाइ।
    उहु मार्ग पावैं नहीं, भूलि पड़े इस मांहि ।।१।।

    पाठान्तर-

    तिवारी-१. जाने कोई नाहिं

    व्याख्या-

    जीवात्मा विचार करती है कि मेरा देश (स्थान) कौन-सा है और मैं कहाँ पहुँच गयी हूँ कहो, यह कैसे जाना जाय (या तिवारी-मेरा कौन देश है किन्तु कहाँ आ गयी हूँ, इसे कोई नहीं जानता है।) उस मार्ग (परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग) का ज्ञान नहीं हो रहा है। इस भवसागर में ही भटक गयी हूँ।

    कबीर ने जीवात्मा के इस जगत में भटकते रहने के दुःख का वर्णन किया है।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सूक्ष्म मार्ग का अंग | दोहा 2

    उतथै कोई न आवई, जासौ बूझौं धाड़।
    इतधैं सबै पठाइये, भार लदाइ लदाइ ।।२।।

    व्याख्या-

    उस परमात्मा के पास से कोई लौटकर आता नहीं जिससे दौड़कर मैं वहाँ का हाल जान सकूँ। इस जगत से ही सब कोई अपने ऊपर कर्मों की गठरी लादे हुए जाता दिखाई देता है।

    आत्मा का परमात्मा के प्रति होने वाली जिज्ञासा का वर्णन है। भार का तात्पर्य पुण्य-पाप कर्म है। परमात्मा के पास पहुँचने वाला मुक्त हो जाता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सूक्ष्म मार्ग का अंग | दोहा 3

    सबकूँ बूझत मैं फिरौं, रहण कहै नहिं कोड़।
    प्रीति न जोड़ी राम सूँ, रहण कहाँ थें होइ ।। ३ ।।

    व्याख्या-

    जीवात्मा सबसे साधना के रहस्यों के विषय में पूछती फिरती है किन्तु कोई भी ईश्वर की अनुभूति के साथ रहने की बात नहीं बताता है। जब मैंने अपने प्रियतम राम से प्रीति ही नहीं जोड़ी तो उसके निकट रहने की स्थिति कैसे बन सकती है।

    'रहनि' संत काव्य का पारिभाषिक शब्द है। आत्मा-परमात्मा की अद्वैत अनुभूति के साथ प्रेममय जीवन यापन रहनि है। न का रूपान्तरण 'ण' में हो गया है।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सूक्ष्म मार्ग का अंग | दोहा 4

    चलौं चलौं सब कोउ कहै, मोहि अँदेसा और।
    साहिब सूँ पर्चा नहीं, ए जांहिगे किस ठौर ।।४।।

    किसी का परिचय ही नहीं है तो सभी प्राणी किस स्थान पर आयेंगे। सब प्राणी चलने की ही बात करते हैं किन्तु मुझे एक अन्य सन्देह है कि परमात्मा से ज्ञान की महत्ता का वर्णन किया गया है।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सूक्ष्म मार्ग का अंग | दोहा 5

    हम बासी उस देश के जहाँ जांति पांति कुल नाहि।
    सबद मिलावा है रहा देह मिलावा नांहि।।५।।

    व्याख्या-

    कबीर कहते हैं कि हम उस देश के निवासी हैं जहाँ जाति-पांति तथा कुल का भेद-भाव नहीं है। वहाँ शब्द से शब्द का मिलन होता है, देह का मिलन नहीं होता।

    शब्द तत्व अनाहत नाद (ओऽम या राम) का रूप है, वही उससे मिल जाता है। कबीर ने अन्यत्र कहा है कि 'बोलनहारा' वही परमतत्त्व है जो देह में उपस्थित है।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सूक्ष्म मार्ग का अंग | दोहा 6

    जाइवे काँ जागह नहीं, रहिवे कौं नहिं ठौर।
    कहै कबीरा संत हौ, अबिगति की गति और ।।६।।

    व्याख्या-

    कबीर संतों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि न तो जाने के लिए कोई जगह है न रहने के लिए कोई स्थान है। उस अव्यक्त ब्रह्म की दशा कुछ विचित्र ही है।

    ईश्वर के पास पहुँचने का मार्ग अत्यन्त सूक्ष्म है। गंतव्य भी अज्ञेय है। सामान्यतः ईश्वर के विषय में जो धारणा है, ईश्वर उससे भी विशिष्ट है।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सूक्ष्म मार्ग का अंग | दोहा 7

    कबीर मारग कठिन है, कोई न सकई जाड़।
    गए ते बहुड़े नहीं, कुशल कहै को आइ।।७।।

    व्याख्या-

    कबीर कहते हैं कि परमात्मा के प्राप्ति का मार्ग अत्यन्त कठिन है, वहाँ कोई पहुँच नहीं सकता है। यदि कोई कठिन साधना के द्वारा पहुँच भी गया तो वह लौटकर आया नहीं तो कुशलक्षेम कौन आकर बताये?

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सूक्ष्म मार्ग का अंग | दोहा 8

    जन कबीर का सिघर घर, बाट सलैली शैल।
    पाव न टिकै पिपीलका, लोगनि लादे बैल ।।८।।

    व्याख्या-

    परमात्मा साधक कबीर का निवास स्थान शून्य चक्र में है जिसका मार्ग बहुत ऊबड़-खाबड़ एवं रपटीला है। ऐसे पर्वतीय बेढंगे मार्ग पर चींटी की गति वाले अर्थात् सूक्ष्म मन वाले साधक भी फिसल जाते हैं। उनके भी पैर वहाँ नहीं टिक पाते। तब सामान्य लोगों की जो अपने मन रूपी बैल पर अपने दुष्कर्मों का बोझा लाद रखे हैं क्या दशा होगी?

    कबीर ने मूलाधार चक्र में स्थित कुंडलिनी जागरण से लेकर परमात्मा तक (सहस्त्रार चक्र) पहुँचने के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का वर्णन किया है। रूपकातिशयोक्ति अलंकार है। योग मार्ग (या भक्ति मार्ग) साधारण मार्ग नहीं है। उस पर चलकर लक्ष्य तक पहुँचना कठिन है।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सूक्ष्म मार्ग का अंग | दोहा 1 9

    जहाँ न चींटी चढ़ि सकै, राइ ना ठहराइ।
    मन पवन का गमि नहीं, तहाँ पहुँचे जाइ ।।9।।

    व्याख्या-

    परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग इतना दुर्गम है कि वहाँ चींटी भी नहीं पहुँच सकती, राई भी नहीं ठहर सकती मन और पवन की भी गति जहाँ नहीं है ऐसे परमात्मा पद की प्राप्ति कबीर ने कर ली है।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सूक्ष्म मार्ग का अंग | दोहा 10

    कबीर मारग अगम' है, सब मुनिजन बैठे थाकि।
    तहाँ कबीरा चलि गया, गहि सतगुरु की साधि ।।१०।।

    पाठान्तर- 

    तिवारी - १. कठिन

    व्याख्या-

    कबीर मानते हैं कि परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग अगम (कठिन) है। सारे मुनी लोग थककर हार मानकर बैठ गये है परंतु कबीर सद्गुरु का साक्ष के सहारे तथा उनकी कृपा से वहा पहुंच गया ।
    गुरु की महत्ता तथा परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का वर्णन

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सूक्ष्म मार्ग का अंग | दोहा 11

    सुर नर थाके मुनि जनां, जहाँ न कोई जाइ।
    मोटे भाग कबीर के, तहाँ रहे घर छाड़ ।।११।।

    व्याख्या-

    कबीर कहते हैं कि सुर, मानव तथा मुनिजन सभी साधना मार्ग पर चलते-चलते थक गये फिर भी कोई वहाँ नहीं पहुँच सका। कबीर बड़े भाग्यशाली हैं कि ऐसे गूढ़ स्थान पर अपना घर बना लिया है। उनका स्थायी रूप से उस परमात्मा में निवास हो गया है।

    सूक्ष्म जनम का अंग


    पूर्व परिचय-

    इस अंग में कबीर ने मनुष्य के जन्म के विषय में प्रकाश डाला है। मनुष्य का जन्म दो प्रकार से होता है-१. स्थूल शारीरिक जन्म, २. आध्यात्मिक साधना परक जन्म। चित्त वृत्ति के ईश्वरीय आधान से स्मरण का आस्वादन होता है। स्थूल मृत्यु से इतर प्राण रहते हुए जो मृत होता है वही सूक्ष्म मृत्यु है।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सूक्ष्म जनम का अंग | दोहा 1

    कबीर सूषिम सुरति का, जीव न जांणें जाल।
    कहै कबीरा दूरि कूरि, आतम अदिष्ट काल ।।१।।

    व्याख्या-

    कबीर कहते हैं कि सूक्ष्म स्मृति रूपी जो जाल (जीवात्मा को जन्म-मरण के बन्धन में डालने वाला) है उसे जीव नहीं जानता। इसलिए हे जीव, आत्मा को अज्ञान से ढकने वाली माया से अपने को अलग कर लेना चाहिए।

    Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | सूक्ष्म जनम का अंग | दोहा 2

    प्राण पिंड कौं तजि चलै, मूवा कहें सब कोइ।
    जीव अछत जाँमै मरै, सूषिम लखै न कोइ ।।२।।

    व्याख्या-

    जब प्राण पिंड (शरीर) को छोड़कर चल देता है तब उसे सब मरा हुआ कहते है किन्तु प्राण के रहते हुए प्राणी जो बार-बार जन्म लेता और मरता रहता है इस सूक्ष्म जन्म-परण को कोई नहीं देखता ।

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