Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग | दोहा १-९

Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग | दोहा १-९

"Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग | दोहा १-९ में कबीर के गहरे आध्यात्मिक संदेशों की सरल व्याख्या पढ़ें और जीवन दर्शन को समझें।"

पूर्व परिचय - 
भगवान् के परिचय से तथा उसमें पूर्णतया लीन हो जाने के बाद आत्मारूपी प्रियतमा ईश्वर के प्रति पतिव्रता नारी की तरह आचरण करती है। उसमें अनन्य तथा एकान्तिक प्रेम की अनुभूति होती है। परम गुणवान कंत की प्रियतमा यदि दूसरे पुरुषों (देवताओं) से हँस कर बात करती है तो, वह अपने को सिर्फ कलंकित करती है। 

वह तो अपने प्रियतम के अलावा किसी और को देखना ही नहीं चाहती और उससे एक मर्यादित तथा एकनिष्ठ पति की तरह व्यवहार की अपेक्षा भी करती है। उसके पास अपना कुछ भी नहीं है। जो कुछ है वह परमात्मा का ही है। अतः वह सब कुछ पूर्णतया समर्पित कर देती है।

संसार की वस्तुओं के प्रति कोई तृष्णा नहीं रहती, केवल हरिरस के लिए ही, वह आशा लगाये रहती है। वह विरह-दुख का वरण करने में भी नहीं हिचकती। प्रियतम के अभाव में वह स्वर्ग की भी इच्छा नहीं करती। कबीर की मान्यता है कि, एक परमतत्त्व के जान लेने के बाद और कुछ भी जानने के लिए शेष नहीं रहता।

कबीर बहुदेवों के पीछे दौड़ने के बजाय, एक ही ईश्वर की आराधना पर बल देते हैं। एक से मन लगाकर ही जीव निश्चिंत सो सकता है। कबीर भक्ति को निष्काम मानते हैं, क्योंकि सकाम भक्ति से निष्काम ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं होती।

Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग | दोहा १


कबीर प्रीतड़ी तौ तुझ सौं, बहु गुणियाले कंत।

जे हँसि बोलौं और सौं, तौं नील रङ्गाऊँ दंत ।। १ ।।


शब्दार्थ -
    प्रीतड़ी - प्रेम, गुणियाले गुणवान्, नील रंगाऊँ दंत कलंकित होना, नील से रंगाना ।

व्याख्या -
    आत्मारूपी प्रियतमा ईश्वर को सम्बोधित करती हुई कहती है कि, सर्वगुण सम्पन्न हे प्रियतम् ! मेरा प्रेम तो तुमसे है। यदि प्रियतम स्वयं गुणवान है तो उसकी प्रियतमा का अन्य पुरुष के प्रति आकर्षित होने का प्रश्न ही नहीं है। वैसे पतिव्रता नारी प्रियतम में गुणों की कमी होने पर भी उसी के प्रति समर्पित रहती है। गुणवान पति के रहते यदि मैं अन्य से हँसकर बोलूँ तो दाँत में मिस्सी के बदले नीला रंग लगा लूँ। अर्थात् अपने को कलंकित कर लूँ। जिस अंग या व्यक्ति की शोभावृद्धि जिस वस्तु या व्यक्ति के सान्निध्य से होती है उसको छोड़कर अन्य का सेवन सौन्दर्य और मर्यादा को क्षीण करता है। नारी की मर्यादा और सौभाग्य उसकी पति परायणता है।

इसमें दाम्पत्य रति के आधार पर आत्मा और परमात्मा के एकान्तिक तथा अनन्य प्रेम का चित्रण किया गया है। 'नील रंगाऊँ देत' एक मुहावरा है, जिसका अर्थ है कलंकित होना। 'हँसि बोलौं' का प्रयोग लाक्षणिक है जिसका अर्थ है प्रेमालाप।

Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग | दोहा २ 


नैनाँ अंतरि आव तू, ज्यूँ हौं नैन झपेठें।

नाँ हौं देखों और कूँ, नाँ तुझ देखन देऊँ।।२।।


पाठान्तर -
    जय० १. नैन झाँपि तोहिं लेउं

शब्दार्थ -
    झेंपेऊँ बन्द कर देना।

व्याख्या -
    आत्मारूपी प्रियतमा कह रही है कि हे प्रियतम! तुम मेरे नेत्रों के भीतर आ जाओ। तुम्हारा नेत्रों में आगमन होते ही, मैं अपने नेत्रों को बन्द कर लूँगी या तुम्हें नेत्रों में बन्द कर लूँगी। जिससे मैं न तो किसी को देख सकूँ और न तुम्हें किसी को देखने दूँ।

इस साखी में एकान्तिक तथा अनन्य प्रेम की व्यंजना की गयी है। प्रिय और प्रियतमा के प्रतीकों का सुन्दर निर्वाह भी दृष्टिगोचर होता है। प्रियतमा चाहती है कि उसके प्रेमास्पद पर उसका एकाधिकार हो। पुरुष तो स्वभाव से चंचल होता है, इसीलिए प्रियतमा उस पर पूरी निगरानी रखना चाहती है ताकि वह किसी और स्त्री की ओर देख ही न पके, विरह कौ अंग में इसी तरह की साखी है -   नैनाँ अंतरि आवतू निसदिन निरखों तोहिं।

Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग | दोहा ३


मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।

तेरा तुझकों सौंपता, क्या लागै है मेरा ।।३।।


शब्दार्थ -
सौंपता = समर्पित करते।

व्याख्या -
    कबीरदास कहते हैं कि हे भगवान्। मेरे पास अपना कुछ भी नहीं है। मेरा यश, मेरी धन-सम्पत्ति, मेरी शारीरिक-मानसिक शक्ति, सब कुछ तुम्हारी ही है। जब मेरा कुछ भी नहीं है तो उसके प्रति ममता कैसी? तेरी दी हुई वस्तुओं को तुम्हें समर्पित करते हुए मेरी क्या हानि है? इसमें मेरा अपना लगता ही क्या है ?

जीवात्मा भी तो भगवान् का अंश है, इसीलिए इसे भी ईश्वर को समर्पित करने में कैसा मोह। 'त्वदीये वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पयो' भाव का ही विस्तार किया गया है।

Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग | दोहा ४


कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ।

नैनूँ रमइया रमि रह्या, दूजा कहाँ समाइ ।।४।।


शब्दार्थ -
स्यंदूर = सौभाग्य का चिह्न, काजल कालिमा, विषय = वासनाएँ, रमइया - रमण करने वाला राम, प्रियतम, दूजा दूसरा ।

व्याख्या -
आत्मारूपी प्रियतमा (कबीर) कह रही है कि, मैंने अपने मस्तक पर सौभाग्य का सिंदूर लगा रखा है। अब क्या उसकी जगह पर काजल लगाया जा सकता है ? प्रियतम के प्रेम तथा अनुराग का जो गौरव मुझे प्राप्त हुआ है, विषय-वासना रूपी काजल लगाने से क्या मेरी शोभा बढ़ सकेगी ? नेत्रों में तो सर्वत्र रमण करने वाला राम रम रहा है, उसमें दूसरा कैसे समा सकता है ?

काजल की जगह आँखों में है वहाँ राम रमण कर रहा है। उसके रहते किसी और में किसी अन्य देवी देवता के लिए स्थान नहीं होता है। इस साखी का एक दूसरा अर्थ भी शोभा-कारक वस्तु की क्या आवश्यकता है? राम के प्रति अनुराग रखने वाले भक्त के मन संभव है - नेत्रों में सिंदूर की रेखा अर्थात् अनुराग की लालिमा, (लाल डोरे) होने के कारण उनमें काजल नहीं दिया जा सकता है। उसी तरह से तरह से राम के आँखों में बसते हुए, किसी और  देवी-देवता या माया, वासना को नहीं बसाया जा सकता।

दृष्टांत, अनुप्रास की सार्थक नियोजना दर्शनीय है।

Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग | दोहा ५


कबीर सीप समंद की, रटै पियास पियास ।

समंदहि तिणका बरि गिणै, स्वाँति बूँद की आस ।।५।।


शब्दार्थ -
तिनका बरि तिनके के बराबर, तृणवत् ।

व्याख्या -
कबीरदास कहते हैं कि समुद्र की सीप प्यास से व्याकुल रहती है और प्यास-प्यास रटती रहती है। स्वाति के जल की आशा में वह सागर को तृणवत् मानती है। अर्थात नगण्य समझती है। इसी तरह से भक्त, संसार-सागर में रहते हुए भी विविध प्रकार के आकर्षणों को तुच्छ समझता है। उसकी प्रेम पिपासा राम-रस के पान से मिट पाती है। विषय-वासनाओं का जल उसे तृप्त नहीं कर पाता। राम भक्त भी प्रेम रस (ब्रह्मानन्द) के लिए राम-राम रटता रहता है।

Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग | दोहा ६


कबीर सुख कौं जाइ था, आगै आया दुख।

जाहि सुख घरि आपणें, हम जाणों अरु दुख ।।६।।


व्याख्या -
कबीरदास कहते हैं कि मैं सामान्य सांसारिक पुरुषों की तरह सुख की खोज में चला जा रहा था, रास्ते में गुरु की कृपा से मुझे प्रिय-विरह जनित वेदना मिल गयी। मैंने सुख से कहा कि, तुम अपने घर चले जाओ अब मुझे इस वेदना के साथ ही जाना है। कबीर ने सांसारिक सुखों को छोड़कर ईश्वरीय विरह की पीड़ा को अंगीकार कर लिया। इस साखी में दुःख और सुख का मानवीकरण किया गया है।

Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग | दोहा ७


दो जग तौ हम अंगिया, यहु डर नाहीं मुझ।

भिस्त न मेरे चाहिये, बाझ पियारे तुझ ।।७।।


शब्दार्थ -
अंगिया = स्वीकार किया, दोजग दोजख, (फारसी शब्द) नरक, भिस्त (विहिश्त, फारसी) स्वर्ग, बाझ - बजाय, बिना।

व्याख्या -
कबीरदास कहते हैं कि तुम्हारे होने पर मुझे नरक भी स्वीकार है। इसका मुझे डर नहीं किन्तु तुम्हारे बिना यदि मुझे स्वर्ग मिले तो उसे अस्वीकार कर दूँगा।
ईश्वर से अनन्य प्रेम की व्यंजना है।

Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग | दोहा ८ 


जे वो एकै न जाँणियों, तौ जॉण्यों सब जाँण।

जे वो एक न जाँणियाँ, तो सबही जाँण अजाँण ।।८।।


शब्दार्थ -
एकै एक, परमतत्त्व, जॉण ज्ञान।

व्याख्या -
जिसने एक परमतत्त्व को जान लिया, उसने सम्पूर्ण ज्ञान को जान लिया। अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया। जिसने उस परमात्मा को नहीं जाना, उसका सारा ज्ञान अज्ञान ही है।

Kabir Ke Dohe- कबीर के दोहे | निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग | दोहा ९


कबीर एक न जाँणियाँ, तौ बहु जाँण्यों क्या होड़।

एक तें सब होत है, सब तैं एक न होइ ।।६।।


शब्दार्थ -
जॉण्यों = जानने से।

व्याख्या -
कबीर कहते हैं कि जो उस अद्वैत पूर्ण ब्रह्म को नहीं जानता, उसके बहुत कुछ जान लेने से क्या लाभ है ? उस अद्वैत की व्याप्ति सर्वत्र है। उसके ज्ञान से समस्त ज्ञान स्वतः आ जाता है। समस्त अचराचर जगत् का अस्तित्त्व उसी के अधीन है। एक से ही अनेक का विस्तार हुआ है । सब मिलकर भी ईश्वर के बराबर नहीं हो सकते। एक साखी में ' एकोहम बहुस्याम ' को ध्वनित किया गया है।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ