Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | परचा का अंग | दोहा १ -१० |

Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | परचा का अंग | दोहा १ -१० |

    "Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे" भारतीय साहित्य के अमूल्य रत्न में से एक हैं, जो संत कबीर जी ने अपनी अद्वितीय शैली में प्रस्तुत किए हैं। 

    Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | परचा का अंग | दोहा १ -१० | इस पोस्ट में हम आपको "कबीर के दोहे" के पहले 10 दोहों के साथ उनके रहस्यमय और गहरे अर्थों के साथ परिचित कराएंगे। कबीर जी (Kabir)  के दोहे में जीवन के विभिन्न पहलुओं, भक्ति और नैतिकता के सिद्धांतों को सुन्दरता से व्यक्त किया गया है, जो हमें सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। 

    यह पोस्ट आपको एक अद्वितीय साहित्य के साथ मिलकर, आत्मा के साथ मिलन की ओर एक मार्गदर्शन का सुनहरा संदेश देगा।


Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | परचा का अंग | दोहा १ |

कबीर तेज अनंत का, मानौं ऊगी सूरज सेणि । 

पति संगि जागी सुन्दरी, कौतिग दीठा तेणि ।।१।। 

शब्दार्थ – 

तेज = प्रकाश, अनन्त = असीमित, ऊगी = उदित, सेणि = श्रेणी, तेणि = उसने  

व्याख्या – 

    कबीर (Kabir) कहते हैं कि परब्रह्म का असीमित प्रकाश ऐसा प्रतीत होता है मानो सूर्यों की श्रेणियाँ उदित हो गयी हैं। विरहिणी आत्मा ने अपने पति परमात्मा के साथ जागृत रहते हुए इस कौतिक अर्थात् अपूर्व दृश्य को देखा है। इस साखी में कबीर ने परमात्मा के अद्भुत सौंदर्य के साक्षात्कार का बिम्बात्मक अंकन किया है। सूर्य श्रेणियों की परिकल्पना में परब्रह्म का अनन्त तेज मूर्तिमान हो उठता है। इस अनन्त तेज को देखने की क्षमता उसी आत्मा में होती है, जो सुषुप्ति से जाग गयी है और ईश्वरीय सामीप्य के बोध से सम्पृक्त है। 

    पति-पत्नी के प्रतीकों से अनुभूति रसात्मक हो गयी है। कबीर (Kabir) इस अनन्त ज्योति के प्रकटीकरण को परमात्मा की अद्भुत क्रीड़ा का परिणाम मानते हैं। 'कौतिग' शब्द का विन्यास इसी भाव की ओर संकेत करता है। भावात्मक रहस्यवाद की सुन्दर अभिव्यंजना के लिए कवि ने दाम्पत्य प्रतीकों का प्रयोग तो किया ही है, साथ में उत्प्रेक्षा और रूपकातिशयोक्ति अलंकारों का विधान भी किया है। दीठा तेणि - प्राचीन हिन्दी का कर्मवाच्य प्रयोग है। 


Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | परचा का अंग | दोहा २  |

कौतिग दीठा देह बिन, रवि ससि बिना उजास ।

साहिब  सेवा माँहि है, बेपरवाँही दास ॥ २ ॥ 

शब्दार्थ – 

कौतिग =विचित्र परिचय, दीठा = ससि देखा, = चन्द्रमा, उजास = प्रकाश । 

व्याख्या – 

    साधक को इस विचित्र परिचय में दो विलक्षण स्थितियाँ प्रत्यक्ष हुईं। एक तो वह परब्रह्म को देख रहा है, किन्तु उसकी कोई देह नहीं है। अर्थात् वह निराकार है। इस तरह के स्वामी की सेवा करते हुए सेवक को किसी प्रकार की सांसारिक विघ्न बाधाओं की परवाह नहीं है ।

    इस साखी में पद योजना कुछ इस तरह की है कि एक भिन्न अर्थ भी प्रतिभासित होता है। दास को यह कौतिक देह अर्थात् इन्द्रिय संवेदनों से परे ज्ञान दृष्टि से दिखाई पड़ा। अर्थात् इसके दर्शन में भौतिक शरीर सक्षम नहीं हो सका, सूर्य चन्द्रमा के प्रकाश के बिना भी उस प्रकाश का दर्शन हो गया । यदि सूर्य चन्द्रमा का अस्तित्त्व न हो तो चारों तरफ अन्धकार होगा और जिससे आँखों का दृष्टि व्यापार संभव नहीं होगा । 

    परम ज्योति के साक्षात्कार में चूँकि बाह्य दृष्टि कामयाब नहीं होती, इसलिए भौतिक कारणों का अतिक्रमण हो सकता है । निश्चिन्त सेवा से ही भगवान् की उपलब्धि होती है इसमें विभावना अलंकार की स्थिति है। 


Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | परचा का अंग | दोहा ३  |

पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान । 

कहिबे कूँ सोभा नहीं, देख्या ही परवान ।।३।। 

शब्दार्थ – 

उनमान = अनुमान, परवान = प्रमाण । 

व्याख्या – 

    परब्रह्म के प्रकाश को अनुमान से नहीं समझा जा सकता है। उपमान, प्रत्यक्ष या अनुमान आदि माध्यम तो लौकिक पदार्थों को जानने समझने के साधन हैं। इनका सम्बन्ध पूर्णतया मायिक जगत् से है। ईश्वर का साक्षात्कार इन साधनों से संभव नहीं है। उसके अपूर्व सौन्दर्य को वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता है। वह सौन्दर्य कहने के लिए नहीं है, अर्थात् अनिर्वचनीय है। 

    अपरोक्षानुभूति ही उसका प्रमाण है । अन्तर्दृष्टि से उसका दर्शन करने वाला व्यक्ति ही उसकी प्रामाणिक पहचान कर पाता है। अनुमान से या कथन से उसका साक्षात्कार न तो किया जा सकता है और न कराया जा सकता है । इस साखी में सम्बन्धातिशयोक्ति, गूढ़ोत्तर तथा वक्रोक्ति का विधान परिलक्षित होता है। 


Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | परचा का अंग | दोहा ४  |

अगम अगोचर गमि नहीं, जहाँ जगमगै जोति । 

जहाँ कबीरा बंदिगी, तहाँ पाप पुन्य नहीं छोति ।।४ ।। 

शब्दार्थ – 

गमि = जाना, बंदिगी = बंदना, छोति = स्पर्श, छुअन । 

व्याख्या – 

    जहाँ परम ज्योति प्रकाशमान है, वहाँ इन्द्रिय माध्यमों से न पहुँचा जा सकता है और न देखा जा सकता है। वहाँ किसी भी मायिक और लौकिक साधन से नहीं पहुँचा जा सकता है। जिस परम ज्योति का साक्षात्कार करके कबीर (Kabir) उसके समक्ष नतमस्तक हो गया है, वहाँ पाप-पुण्य जैसे भेद-प्रभेद नहीं हैं। वह स्थिति द्वन्द्वातीत है। 

गीता में कृष्ण ने कहा है 

न मां कर्माणि लिम्पन्ति, न मे कर्म फले स्पृहा । 

इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ।।

 ईश्वर का जो साक्षात्कार करता है, वह स्वयं भी पाप-पुण्य से परे हो जाता है। 


मुण्डकोपनिषद् में इसी तथ्य का संकेत मिलता है - 

यदा पश्यः पश्यते रुक्म वर्ण कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनियम् । 

तदा विद्वान् पुण्य- पापे विधूय । निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति ।।


Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | परचा का अंग | दोहा ५  |

हदे छाड़ि बेहदि गया, हुवा निरन्तर बास ।

कँवल ज फूल्या फूल बिन, को निरषै दास ।। ५ ।।

शब्दार्थ –

हदे = सीमा, बेहदि = असीम ।

व्याख्या - 

    कबीर (Kabir) कहते हैं, कि मैं ससीम को पार करके असीम में पहुँच गया। वहीं मेरा शाश्वत निवास हो गया । वहाँ मैंने अनुभव किया कि बिना फूल के एक कमल खिला हुआ है। इसका दर्शन भगवान् का निजी दास ही कर सकता है अन्य कोई नहीं। कबीर ने ब्रह्म के अनुभव को बड़ी कुशलता से व्यंजित किया है। 

    जीवात्मा माया के वशीभूत होने के कारण अपने को सीमित समझने लगती है। सांसारिकता के निराकरण और माया मोह से छूटने के बाद आत्मा अपनी सीमाओं को पार कर असीम ब्रह्म (परमात्मा) से अभिन्न हो जाती है। उसका हृत्कमल कार्य कारण से परे होकर उन्मीलित हो उठता है। उसमें अद्भुत सुगन्ध का अनुभव होता है यह अनुभव भक्त को वैयक्तिक स्तर पर ही होता है। 

    विभावना तथा वक्रोक्ति अलंकारों की योजना है। इस साखी पर नाथ सम्प्रदाय के हठ योग का प्रभाव परिलक्षित होता है। 


Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | परचा का अंग | दोहा ६  |

कबीर मन मधुकर भया, रह्या निरन्तर बास । 

कँवल ज फूल्या जलह बिन, को देखें निज दास ।।६।। 

शब्दार्थ - 

मधुकर = भ्रमर 

व्याख्या - 

    कबीर (Kabir) कहते हैं कि उस कमल को देखकर मेरा मन भ्रमर हो गया है क्योंकि उससे निरंतर सुगन्ध निकल रही है। जल के बिना जो फूल खिला हुआ है उसे कौन देख सकता है ? उसे देखने का एकमात्र अधिकारी भगवान् का भक्त ही है। कबीर अपनी ब्रह्मानुभूति को व्यक्त करने के लिए जिन प्रतीकों का आश्रय ग्रहण करते हैं, उन्हें भी लौकिक गुणों से अलग करके अलौकिक बना देते हैं। 

    इस साखी में रूपक, विभावना, वक्रोक्ति आदि अलंकारों की सुन्दर योजना है। कबीर ने सहस्र दल वाले कमल की परिकल्पना से प्रेरित होकर हृत्कमल की कल्पना की है। वास्तव में भक्त के लिए हृदय का उल्लास और आनन्द सर्वोपरि है। 


Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | परचा का अंग | दोहा ७  |

अंतरि कँवल प्रकासिया, ब्रह्म वास तहाँ होइ । 

मन भँवरा तहाँ लुबधिया, जाँौंगा जन कोइ ।।७।। 

शब्दार्थ -

अंतरि = हृदय में, भंवरा=भ्रमर, जन= भक्त, लुबधिया = लुब्ध हो गया।

व्याख्या – 

    कबीरदास (Kabirdas)  कहते हैं कि हृदय के भीतर कमल प्रफुल्लित हो रहा है। उसमें से ब्रह्म की सुगन्ध आ रही ( या वहाँ ब्रह्म का निवास) है। मेरा मन रूपी भ्रमर उसी में लुब्ध हो गया। इस रहस्य को कोई ईश्वर भक्त ही समझ सकता है। किसी अन्य व्यक्ति के समझ में नहीं आयेगा । 

     छान्दोग्योपनिषद् के अध्याय आठ में १ ५ तक हृदय कमल रूप देश का उपदेश किया गया है - अथ यदिदमस्मिन ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म दहरोऽस्मिन्नन्तरा काशस्तस्मिन्यदन्तस्तदन्वेष्टव्यं तद्वाव विजिज्ञासितव्यमिति ।' (अब इस ब्रह्मपुर के भीतर जो यह सूक्ष्म कमलाकार स्थान है, इसमें जो सूक्ष्म है उसके भीतर जो वस्तु है उसका अन्वेषण करना चाहिए और उसी की जिज्ञासा करनी चाहिए। 

    कबीर ने इसी सूक्ष्म तत्त्व की खोज की है और बहुत ही सरल ढंग से उसकी अभिव्यक्ति की है। उपनिषद् के ज्ञान को भक्ति भाव में परिणत करके कबीर (Kabir) ने उसे सहज बोधगम्य बना दिया है। मन भँवरा में रूपक तथा वास में श्लेष (गंध तथा निवास) अलंकार हैं । 


Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | परचा का अंग | दोहा ८  |

सायर नाहीं सीप बिन, स्वाति बूँद भी नाहिं । 

कबीर मोती नीपजै, सुन्नि सिषर गढ़ माँहि।।८।। 

शब्दार्थ – 

सायर =सागर, सिषर = शिखर,   सुन्नि = शून्य, सहस्रार चक्र

व्याख्या – 

    कबीरदास (Kabirdas) कहते हैं कि वहाँ सागर नहीं है, सीप नहीं है तथा स्वाति नक्षत्र की बूँदें भी नहीं हैं, फिर भी शून्य शिखर अर्थात् सहस्रार चक्र में मोती (ईश्वर रूपी) उत्पन्न हो रहे हैं। साधना के द्वारा जब कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है और मेरुदंड से ऊपर उठकर सहस्रार चक्र में पहुँचती है तो वहाँ ब्रह्म से उसका मिलन होता है अर्थात् ब्रह्मज्योति का साक्षात्कार होता है ।

    कबीर ने सांसारिक कार्य-कारण की सीमाओं से परे ब्रह्म के साक्षात्कार को विभावना अलंकार का सहारा लेकर प्रस्तुत किया है। कबीर अपने कथन में चमत्कार पैदा करके जिज्ञासुओं को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करते हैं। कबीर (Kabir)  की भक्ति साधना पर योग का प्रभाव स्पष्ट है । 


Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | परचा का अंग | दोहा ९  |

घट माँहै औघट लह्या औघट माँहै घाट ।

कहि कबीर परचा भया, गुरु दिखाई बाट ।। ९ ।। 

शब्दार्थ – 

घट = शरीर, औघट = विचित्र मार्ग, घाट= लक्ष्य, नहाने का स्थान, परचा = परिचय, बाट = रास्ता ।

व्याख्या - 

    कबीरदास (Kabirdas) कहते हैं कि गुरु के निर्देश से मैंने शरीर के अन्दर ही एक विचित्र मार्ग का दर्शन किया। इसी मार्ग का अनुसरण करते हुए मैं अपने लक्ष्य तक पहुँच जाऊँगा। उस घाट पर पहुँच कर आत्मा परम विश्रांति को प्राप्त करेगी। गुरु की कृपा से ही मुझे सत्य का साक्षात्कार हो गया इस साखी में कुण्डलिनी जागरण का संकेत है। यह शक्ति अनेक चक्रों को बेधती हुई सहस्रार में महाशक्ति से मिल जाती है। प्राण के ऊर्ध्वगमन का मार्ग गुरु के निर्देश से समझा जा सकता है। इस पर भी योग साधना का प्रभाव है। प्रथम पंक्ति में पद मैत्री द्रष्टव्य है । विरोधाभास अलंकार की भी कुशल योजना है। 


Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | परचा का अंग | दोहा १०  |

सूर समाणौं चंद में, दहूँ किया घर एक । 

मन का च्यंता तब भया, कछू पूरबला लेख ।। १० ।। 

शब्दार्थ – 

सूर = सूर्य, पिंगला नाड़ी, दाहिनी नाड़ी, चंद = इड़ा नाड़ी, बाँई नाड़ी, दहूँ= दोनों, च्यंता = सोचा, पूरबला= पूर्व जन्म, लेख= भाग्य का लिखा।

व्याख्या –

    कबीरदास (Kabirdas) कहते हैं कि पिंगला और इड़ा दोनों नाड़ियाँ एक ही घर में समा गयीं अर्थात् सुषुम्ना में सक्रिय हो गयीं। यौगिक क्रिया से सुषुम्ना का अवरुद्ध मार्ग खुल गया । इसके बाद तो मनोवांछित फल मिल गया। इस तरह की सफलता पूर्व जन्म के पुण्य या सुन्दर भाग्य लेख के कारण मिल सकी। इड़ा मेरुदंड के बाईं ओर तथा पिंगला दाहिनी ओर है। दोनों सुषुम्ना से लिपटी हुई हैं। इनके मध्य में सुषुम्णा नाड़ी है। 

    सामान्य व्यक्ति की इड़ा पिंगला नाड़ियाँ सक्रिय रहती हैं। एक से प्राण वायु और दूसरे से अपान वायु का प्रवाह होता है। साधना के द्वारा जब कुंडलिनी जागृत होती है तो दोनों नाड़ियाँ अवरुद्ध हो जाती हैं और सुषुम्णा का मार्ग खुल जाता है जिससे होकर प्राण शक्ति सहस्रार तक पहुँचती है जहाँ ईश्वर की ज्योति से साक्षात्कार होता है। यौगिक प्रभावों से निर्मित प्रतीकों में बहुत कुछ जटिलता आ गयी है। 

    इनका अर्थ-बोध तब तक संभव नहीं है जब तक योग की क्रियाओं से परिचय न हो। इससे कबीर के पुनर्जन्मवादी मान्यता की पुष्टि होती है। इस जटिल काया साधना के पीछे वे पुण्य कर्मों के फल ( प्रकारान्तर से ईश्वर की कृपा) को ही महत्त्वपूर्ण ठहराते हैं । इस साखी पर योग का गहरा प्रभाव है।

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