Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | रस का अंग
बिना समय बर्बाद किए, कबीर (Kabir) के अमूल्य दोहों के साथ आत्मा की गहराईओं में समाहित हों। 'Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | रस का अंग ' इस संग्रह में, कबीर की कविताओं की शानदारता का अनुसरण करें, जो मानव अनुभव के विभिन्न पहलुओं को बहुतंत्री रूप से प्रकट करते हैं। ये दोहे, या जोड़ी, सार्वभौमिक सत्यों के साथ हमें परिचित कराते हैं और समय और सांस्कृतिक सीमाओं को पार करने वाले दर्शन देते हैं।
'रस का अंग' एक विषय है जो पाठकों को कबीर (Kabir) की पंक्तियों के भावनात्मक गहराई से जुड़ने के लिए आमंत्रित करता है। प्रत्येक दोहा एक रत्न है जो मानव भावनाओं के समृद्धि को प्रतिबिंबित करता है, प्रेम और आनंद से लेकर आत्मजागरूकता और आध्यात्मिक जागरूकता तक। इस कविताओं के सफर में हमारे साथ जुड़ें और देखें कि कैसे ये अच्छूते दोहे काल और सांस्कृतिक सीमाओं को पार करके पाठकों के दिलों और आत्माओं को छूने का समर्थन करते हैं।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | रस का अंग | दोहा १
कबीर हरि रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि ।
पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़हि चाकि ।। १ ।।
शब्दार्थ –
थाकि = शिथिलता, थकावट |
व्याख्या –
कबीरदास (Kabirdas) कहते हैं कि मैंने ईश्वर के भक्ति रस का खूब छक कर आस्वादन किया है। मुझमें किसी तरह की थकावट नहीं है । (या किसी तरह की मस्ती शेष नहीं है, अर्थात् खूब मस्त हो गया हूँ।) मन में पूर्ण जागृति आ गयी। परिपक्व साधक को पुनः संसारचक्र पर नहीं चढ़ना पड़ेगा। कुम्हार का घड़ा जब पक जाता है तो उसे पुनः चाक पर नहीं चढ़ना पड़ता । कबीर ने निदर्शना का आश्रय लेकर ब्रह्मानन्द की रसात्मक अनुभूति और पूर्ण सिद्धावस्था का चित्रण एक साथ कर दिया है ।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | रस का अंग | दोहा २
राम रसाइन प्रेम रस, पीवत अधिक रसाल ।
कबीर पीवण दुलभ है, माँगै सीस कलाल ।।२।।
शब्दार्थ -
पीवत = पीने में, रसातल = मधुर, दुलभ = दुर्लभ, कठिन, सीस= सिर, अहं = स्वयं ।
व्याख्या –
भगवान् का प्रेम वह रसायन है जिसका आस्वादन अत्यधिक मधुर होता है। इसमें कायाकल्प की क्षमता है। इसीलिए तो भक्त को देहात्म अनुभूति से परमात्म अनुभूति होने लगती है। किन्तु इस अद्भुत रसायन को पाना कठिन है क्योंकि इसके लिए कलाल (गुरु) बहुत बड़ी कुर्बानी माँगता है। सिर देने के बाद ही यह रसायन मिल पाता है। कबीर (Kabir) के इस कथन पर फारसी काव्य का प्रभाव है। सिर देने का अभिप्राय है पूर्ण अहंकार का विनाश, या भिन्न आत्मस्थिति का विसर्जन । इसमें व्यतिरेक अलंकार दर्शनीय है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | रस का अंग | दोहा ३
कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ ।
सिर सौपै सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाइ || ३ ||
शब्दार्थ -
भाठी = शराब की भट्ठी
व्याख्या -
प्रेम रस रूपी आसव का जहाँ निर्माण हो रहा है उस भट्ठी के पास बहुत मे पीने की इच्छा रखने वाले लोग मौजूद हैं । जो सिर सौंपने की हिम्मत रखता है वही इस आसव को पी सकता है अन्यथा बिना पिये ही जाना पड़ेगा । कबीर ने शराब-निर्माण के स्थल को बिम्ब के रूप में प्रयोग करके राम की भक्ति के लिए अपेक्षित त्याग तथा अहंकार हीनता को व्यंजित किया है।
कबीर (Kabir) को समाज के हर स्तर के लोगों की प्रवृत्ति का अच्छा अनुभव है। इस साखी में मध्यकालीन समाज की नशाखोरी की समस्या का संकेत मिलता है। शराब के लिए लोगों को कितना मूल्य चुकाना पड़ता था इसकी भी व्यंजना इसमें है । सन्त कबीर के रूपकों और प्रतीकों में तत्कालीन समाज का स्पष्ट चित्र अंकित हो जाता है ।
इस साखी में 'कलाल' – गुरु का प्रतीक है। उसके ज्ञानोपदेश को सुनने के लिए बहुत से शिष्य इकट्ठे होते हैं किन्तु उनमें से रामभक्ति का आस्वादन वही कर पाता है जो अपने को पूर्णतया समर्पित कर देता है अर्थात् जिसमें अहंकार तथा सब के अलगाव का बोध लोशमात्र भी नहीं रहता। रूपकातिशयोक्ति तथा व्यतिरेक अलंकारों की योजना से कबीर के अभिव्यक्ति कौशल का परिचय मिलता है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | रस का अंग | दोहा ४
हरि रस पीया जाँणिये, जे कबहूँ न जाइ खुमार ।
मैमंता घूमत रहै', नाँहीं तन की सार ।। ४ ।।
शब्दार्थ -
हरि रस = भक्ति रस, ईश्वरीय प्रेम - रस, खुमार = नशा,मैमंता मस्त - मतवाला, सार = सुधि ।
व्याख्या -
कबीरदास (Kabirdas) कहते हैं कि राम के प्रेम का रस पान करने से कभी नशा नहीं उतरता । यही रामरस पीने वाले की पहचान भी है। प्रेमरस से मस्त होकर भक्त मतवाले की तरह इधर-उधर घूमने लगता है। उसे अपने शरीर की सुधि भी नहीं रहती। भक्ति-भाव में डूबा हुआ व्यक्ति, सांसारिक व्यवहार की परवाह नहीं करता और उसकी दृष्टि में देह-धर्म नगण्य हो जाता है। आसव पान किये हुए व्यक्ति के बिम्ब में रस भाव को प्रत्यक्ष करने में कवि पूर्ण सफल हुआ है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | रस का अंग | दोहा ५
मैमंता तिण नाँ चरै, सालै चिता सनेह ।
बारि जु बाँध्या प्रेम कै, डारि रह्या सिरि षेह ।। ५ ।।
शब्दार्थ-
मैमंता = मतवाला हाथी, तिण =तृण, घास, सालै = चुभन, षेह = धूल |
व्याख्या -
जिस प्रकार द्वार पर बँधा हुआ मतवाला हाथी अपने शरीर का ख्याल नहीं रखता और अपने ऊपर धूल डालता रहता है, उसी तरह 'राम' भक्तिरस को पीने वाला व्यक्ति मस्त होकर सामान्य आचरण नहीं करता। क्योंकि उसे चित्त में स्नेह का शूल शालता रहता है। वह प्रेम के द्वार पर बधा हुआ अपने शरीर के प्रसाधन आदि की चिन्ता छोड़कर भस्म डाल लेता है अर्थात् शरीर-चिन्ता उसके लिए नगण्य हो जाती है।
इस साखी में मतवाले हाथी के बिम्ब का सार्थक प्रयोग है। तिण तथा नाँ चरै में श्लेष है। तिण के दो अर्थ हैं, पहला तृण दूसरा उसके द्वारा । नाँ चरै का अर्थ है न चरना और न आचरण करना। रूपकातिशयोक्ति अलंकार की योजना है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | रस का अंग | दोहा ६
मैमंता अविगत रता, अकलप आसा जींति ।
राम अमलि माता रहै, जीवत मुकति अतीति ।।६।।
शब्दार्थ -
अविगत = अगम्य, रता = लीन, अनुरक्त, अकलप = निर्विकल्प, अमलि=नशे में, आशा = आकांक्षा, इच्छा, अतीति = द्वन्द्व से परे ।
व्याख्या
भक्ति रस (प्रेम-रस) में मस्त भक्त अगम्य तत्व में अनुरक्त हो जाता है। आशा-आकांक्षा को जीतकर अर्थात् इच्छा रहित होकर वह निर्विकल्प हो जाता है। राम के अमल (नशा) में मस्त वह विषयातीत तथा जीवन्मुक्त हो जाता है। उसके सारे द्वन्द्व समाप्त हो जाते हैं । इसमें ‘राम अमलि’ में रूपक, जीवन मुकति में व्यतिरेक, मैमंता में रूपकातिशयोक्ति अलंकारों की संस्थिति है। सच्चे साधक का बिम्बात्मक चित्र बहुत ही प्रभावशाली है।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | रस का अंग | दोहा ७
जिहि सर घड़ा न डूबता, अब मैगल मलि न्हाइ ।
देवल बूड़ा कलस सूँ, पंषि तिसाई जाइ ||७॥
शब्दार्थ –
सर = सरोवर, मैगल = मतवाला हाथी, देवल = देवालय, शरीर, कलस चोटी तक, पंषि = जीव, तिसाई = तृषित ।
व्याख्या –
जिस तालाब में घड़ा नहीं डूबता था उसमें मतवाला हाथी मल-मल कर अवगाहन कर रहा है। उसमें देवालय कलश तक डूब गया है और पक्षी की तृष्णा दूर हो गयी है। कबीर (Kabir) के इस विचित्र कथन का कुछ निश्चित अभिप्राय है। सरमानस सरोवर या हृदय सरोवर का प्रतीक है। उसमें जब अनुभूति -जल प्रेमरस का अभाव था । तब एक साधारण घड़ा नहीं डूब सकता था । अर्थात् एक लघु जीव भी उसमें तृप्ति नहीं पा सकता था ।
अब यह अनुभूति सम्पन्न हो गया है जिसमें जीव अवगाहन कर सकता है। शरीर रूपी पक्षी के लिए यह जल पेय नहीं है क्योंकि यह विषय - सुख से अलग स्वभाव वाला अनुभव-जल है । इसलिए उसे प्यासा ही लौटना पड़ता है। मतवाला हाथी को अहंकार का प्रतीक भी माना जा सकता है जो इसमें पूर्णतया डूब जाता है। ऐसी स्थिति में पक्षी जीव का प्रतीक होगा। 'जाइ' का अर्थ है चला जाना, अर्थात् उसकी तृष्णा चली जाती है। रूपकातिशयोक्ति, विशेषोक्ति अलंकारों का विधान द्रष्टव्य है ।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | रस का अंग | दोहा ८
सबै रसाइंण मैं किया, हरि सा और न कोइ ।
तिल इक' घट मैं संचरै, तौ सब तन कंचन होइ ॥८॥
शब्दार्थ –
रसाइंण = रसायन, घट = शरीर ।
व्याख्या –
कबीरदास (Kabirdas) कहते हैं कि मैंने बहुत से रसायनों का प्रयोग किया अर्थात् मैंने बहुत कीमियागीरी की किन्तु राम रसायन की तरह अद्भुत प्रभाव वाला कोई रसायन नहीं मिला। इस रसायन का एक बूँद (रंचमात्र भी) यदि शरीर में संचरित हो जाय तो सारा शरीर सोना हो जाता है। कबीर ने कीमियागीरी का बिम्ब प्रस्तुत करते हुए अन्य साधना पद्धतियों की निष्प्रभावात्मकता और राम-भक्ति की श्रेष्ठता को प्रतिपादित किया है। यह प्रेम-रस ऐसा है कि इसके संचार मात्र से शरीर की कांति और मूल्य दोनों ही बढ़ जाते हैं।
Kabir Ke Dohe - कबीर के दोहे | रस का अंग | दोहा ९
अमृत केरी पूरिया, बहुविधि दीन्हीं छोरि ।
आप सरीखा जो मिलै, ताहि पियावहु घोरि ।।९।।
व्याख्या -
अमृत की पुड़िया (गुरु ने) अनेक प्रकार से खोलकर रख दी है। अपने समान स्वभाव का जो व्यक्ति मिलता है उसे घोलकर पिला दो । राम रस का आस्वादन उसे भी करा दो।
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